गोपालगंज जेल ७/१२/१९८२ ई॰
स्वर-विज्ञान स्वर का प्रायोगिक अध्ययन-पद्धति है। स्वर-विज्ञान
मुख्यतः प्राणायाम पर आधारित अध्ययन-पद्धति है जिसके अन्तर्गत प्राणों की स्थिति
तथा उससे प्राकृतिक श्रेष्टिक सम्बन्धों और उसके परिणामों का क्रमबद्ध प्रायोगिक
अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत स्वास-प्रस्वास पर आधारित व्यवहारों तथा उसके
प्रभावों की जानकारी, घटित होने वाली घटनाओं के पूर्व ही मिल जया करती है जिसमें कुपरिणामों
को सुपरिणामों में परिवर्तित करने के विधानों को अपना कर अपनी रक्षा-व्यवस्था कर
लेने की स्पष्ट जानकारी और क्रिया-प्रक्रिया भी स्पष्टतः उल्लिखित है जिससे
सम्बंधित हम सभी बंधुओं को ही होना चाहिये। जब तक सम्बंधित होकर उसके यथार्थता की
अनुभूति या लाभ और सफलता हासिल नहीं कर ली जाती है तब तक कथनी व्यर्थ ही है। भोजन
करने वाला ही भोजन का स्वाद और आनन्द की अनुभूति ले सकता है और कुछ बता सकता है
पाक् शास्त्र को मात्र पढ़ने वाला उक्त भोजन के स्वाद की यथार्थता को कभी नहीं बता
सकता। स्वर ही सृष्टि संचालन करने वाली शक्ति को क्रियाशील तथा गतिशील करने वाला
सूक्ष्म-तर है जिससे सम्बंधित होने के कारण ही जीवधारी कहलाते हैं और जिससे रहित
या दूर या पृथक् होने या रहने वाला ही निर्जीव कहलाता है। स्वर-विज्ञान अपने आप
में ही एक बृहत् अध्ययन पद्धति है फिर भी प्राणायाम ही इसका एकमात्र क्रियाशीलता
और गतिशील करने वाला माध्यम रूप आधार होता है।
आइये बंधुओं! अब हम लोग प्राणायाम की यथार्थ जानकारी करके उसके
अनुसार अभ्यास करते हुये उससे लाभान्वित होने का निरन्तर अभ्यास करें।
प्राणायाम की विधि तथा प्रकार
प्राण वह वायु है जिसके सहारे या माध्यम से आत्म-शक्ति स्वान्स के रूप
में नासिका छिद्रों से प्रवेश करती है तथा जीव प्रस्वास के साथ आत्म-शक्ति हेतु
शरीर के नासिका छिद्रों से ही बाहर निकलता है। हालांकि यह भी सत्य है की
आत्म-शक्ति ही स्वास-प्रस्वास के साथ होता है। दूसरी बात यह है कि सत्ता और शक्ति
इसी प्राणवायु के सहारे ही सृष्टि की उत्पत्ति-संचालन तथा प्रलय भी करते-कराते हैं
अर्थात् सृष्टि की सारी गति –विधि इसी प्राण-वायु के सहारे होती है। चाहे वह शरीर
के अन्दर की गति-विधि हो या शरीर के बाहर की, दोनों ही एक सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामर्थ्यवान् रूप परमसत्ता के
निर्देशन तथा आदि-शक्ति की क्रियाशीलता से होता है रहता है। बीच के नारद, ब्रह्मा, शंकर आदि समस्त ही
सत्ता-शक्ति के कर्मचारी मात्र होते हैं। नासमझदारी वश लोगों ने पुजा-उपासना में
इन लोगों को समेट लिये हैं। ये लोग पुजा और भक्ति-उपासना के अधिकारी नहीं होते हैं। हाँ,आदर-सम्मान तथा प्रतिष्ठा आदि के पात्र अवश्य हैं परंतु आदर-सम्मन तथा
प्रतिष्ठा भी ऐसा नहीं हो की ये सत्ता और शक्ति के स्थान पर ही प्रतिस्थापित हो
जाय।मुख्यतः प्राणायाम की तीन विधि है जो आगे देखी जाय। यहीं प्राणायाम के प्रकार
भी कहलाते हैं।इसे मात्र पढ़ा न जाय बल्कि किसी सक्षम गुरु के निर्देशन में करते
हुये निरन्तर अभ्यास किया जाय,अन्यथा इसकी यथार्थता समझ में नहीं आ पायेगी। अब हम आप
रेचक-कुम्भक-पूरक का यथाविधि जानकारी हासिल करते हुये अभ्यास के साथ पृथक्-पृथक्
जानेंगे-समझेंगे तत्पश्चात् अपने जीवन को उसी में लगायेंगे। कुछ ना समझदार लोग
प्राणायाम का आरम्भ पूरक से करते हैं जो प्राणायाम की अशुद्ध पद्धति है क्योंकि
क्रिया रेचक से ही प्रारम्भ करना लाभदायक होता है।
रेचक :- शरीर के अन्तर्गत निहित वायु को प्रस्वास
के द्वारा शरीर से बाहर निकालने या बाहर फेंकने की प्रक्रिया को ही रेचक कहते हैं। रेचक नाड़ी शोधन की सर्वोत्तम क्रिया है। इसके अन्तर्गत शरीर के अन्दर की समस्त
वायु को इस प्रकार से बाहर निकाला जाता है कि शरीर बिल्कुल ही वायु शून्य आभासित
होने लगे। जितनी आवश्यकता शरीर को पूरक कि है उससे थोड़ी भी कम आवश्यकता रेचक कि ही
नहीं है क्योंकि जब स्थान खाली नहीं रहेगा तो कोई व्यक्ति या वस्तु वहाँ कैसे जायेगा
? ठीक उसी प्रकार जब
तक शरीर के अन्दर की वायु को भीतर से रेचक क्रिया से बाहर निकाल नहीं देंगे तब तक शरीर के अन्दर पूरक की क्रिया से
आत्म-शक्ति कैसे प्रवेश करेगी, अर्थात् नहीं कर पायेगी। इस प्रकार पूरक की जितनी आवश्यकता शरीर को
पड़ती है उससे जरा सा भी कम आवश्यकता पूरक हेतु रेचक की भी नहीं है। विज्ञान की
भाषा में पूरक (Inspiration) के द्वारा शुद्ध-वायु आक्सीजन (O2) शरीर में प्रवेश करता है जब की योग की भाषा में पूरक द्वारा
प्राण-वायु रूप आक्सीजन (O2) के साथ आत्म-शक्ति रूप शक्ति (Energy) रूप (सः) अन्दर प्रवेश करती है परन्तु इसके लिये अत्यावश्यक होता है
रेचक। क्योंकि विज्ञान की भाषा में जब तक कार्बनडाई-आक्साइड (CO2 ) रेचक-क्रिया (Expiration) से बाहर निकल नहीं जायेगी, तब तक आक्सीजन (CO2
) शरीर के अन्दर कैसे प्रवेश करेगी, अर्थात् नहीं कर
पायेगी। ठीक ऐसा ही योग की भाषा में रेचक-क्रिया के द्वारा जब तक जीव (अहं) बाहर
नहीं जायेगा तब तक आत्म-शक्ति (सः) पूरक कैसे प्रवेश कर पायेगी? अर्थात् नहीं कर
पायेगी। हाँ,यह प्रश्न यहाँ पर उठ या बन सकता है कि जब पूरक होगी ही नहीं तो रेचक
कहाँ से होगी? तब ये जवाब मिलता है कि वर्तमान में जब वार्ताक्रम में हम लोग हैं तो
जाहिर हो रहा है कि पूरक के साथ शक्ति ही जीव के रूप में भीतर बनकर पड़ी हुई है, तभी बोली-चाली आदि
क्रियायें हो रही है अन्यथा ये क्रियायें होती ही नहीं। अब मुख्य समस्या यह है कि
जब तक यह अहं रूप जीव रेचक-क्रिया से बाहर नहीं आयेगा तब तक सः रूप आत्म-शक्ति
अन्दर कैसे प्रवेश करेगी अर्थात् नहीं कर सकती। अतः रेचक-क्रिया पहले की जानी
अत्यावश्यक होता है ताकि पूरक के लिये स्थान खाली हो जाय।
पूरक:- पूरक-क्रिया शरीर की प्राण-वायु मात्र ही
नहीं,अपितु प्राण-वायु के साथ आत्म-शक्ति (सः) भी पूरक-क्रिया के अन्तर्गत
शरीर में प्रवेश करती है ।अब इससे समझ लेना चाहिये कि शरीर हेतु पूरक की कितनी
आवश्यकता है ।शरीर के अन्दर ली जाने वाली अथवा प्रवेश करने वाली प्राण-वायु की
प्रवेश करने वाली क्रिया ही पूरक है ।पूरक का सामान्य अर्थ भी है –कमी को पूरा
करना ।पूरक वह क्रिया है जिसके द्वारा जीव को क्रियाशील होने हेतु आत्म-शक्ति
प्राप्त होती या मिलती रहती है ।यह आत्म-शक्ति परमात्मा से चलकर प्राण-वायु के साथ
पूरक-क्रिया के रूप में नासिका छिद्रों से शरीर में प्रवेश कर मूलाधार में पहुँचकर
जीव रूप में परिवर्तित होकर या जीव रूप धारण कर शरीर को चलाता या क्रियाशील करता
रहता है जिसकी यथार्थतः जानकारी करने और रखने वाला व्यक्ति तो योगी-यति,ऋषि-महर्षि तथा
आध्यात्मिक साधक-सिद्ध,सन्त-महात्मा ,आलिम-औलिया,पीर-पैगम्बर,पादरी,प्राफेट्स आदि आदि कहलाते हैं और नाजानकार तथा मात्र कर्मो में जकड़ा
हुआ व्यक्ति सांसारिक या गृहस्थ-वर्ग का कहलाता है। ज्ञानी सबसे ही उत्तम है।
कुम्भक :- शरीर के भीतर या
बाहर,स्वास या प्रस्वास, रेचक या पूरक की यथा स्थान रोक रखना ही कुम्भक है। कुम्भक ही वह
क्रिया-प्रक्रिया है जिसके द्वारा रेचक और पूरक की आवश्यकता तथा महत्व की यथार्थता
की अनुभूति कराता या यथार्थता को आभासित करता है। कुम्भक-क्रिया करने से रेचक तथा
पूरक की क्षमता एवं शक्ति-सामर्थ्य में असाधारण गतिं से वृद्धि होती है। कुम्भक-क्रिया का अभ्यासी और सिद्ध शरीर इतनी ताकतवर या बलवान तथा गम्भीर हो जाती
है कि जीप-ट्रक को क्या कहा जाय ।स्टीमर या रेल इंजन को भी चुनौती दी जाती रही है। गरिमा सिद्धि की प्राप्ति भी कुम्भक क्रिया से ही प्राप्त होती है। पाठक बंधुओं
ऐसा संसार में कोई प्राणी नहीं है जो कठिन श्रम या भार या बल संबंधी कार्यों में
बिना कुम्भक के सहारे कार्य सम्पन्न कर पता हो। आप स्वयं अनुभव करें कि किसी भर को
उठाने या धक्का देने या अचानक बल प्रयोग में स्वतः ही क्षणिक कुम्भक हो जा रहा है
कि नहीं। तो देखने में आयेगा कि हो रहा है। इतना ही नहीं, आप सुनते भी होंगे
कि झट से कह दिया जाता है कि इनका ‘दम’ टूट गया। जरा सोंचे कि ‘दम’ क्या था ? जो रेचक तथा पूरक में परिवर्तित हो गयी। बंधुओं इतना ही नहीं
बारम्बार तेजी के साथ जब रेचक-पूरक होने लगता है तो यह भी कह दिया जाता है कि इनका
‘दम’ फूल रहा है अर्थात्
हार या थक गये हैं अर्थात् दम या कुम्भक टूट गया है। यह बात अवश्य ही ज्ञेय या
जानने योग्य है कि दम या कुम्भक बल, गम्भीरता आदि स्थिर ताकत या शक्ति का ही पर्याय होता है। इस प्रकार हम
आप सभी बंधुओं को कुम्भक कितने प्रकार का है ?
बाह्य कुम्भक :- योग-साधना में
प्राणायाम के अन्तर्गत बाह्य कुम्भक-कुम्भक की ही वह क्रिया है जो रेचक के पश्चात्
तथा पूरक के पूर्व में की जाती है। यह वह क्रिया है जिसके किए जाने से या जिसके
अभ्यास से शरीर के अन्दर नासिका छिद्रों से प्राण-वायु के साथ पूरक के रूप में
कितनी बलवती होकर आत्म-शक्ति प्रवेश करती है, वह वही समझ सकता है जो इसका अभ्यासी है। जो इसका अभ्यासी नहीं है वह
इसका गुण या महत्त्व क्या समझ सकता है? अर्थात् नहीं समझ सकता है। इतना ही नहीं है यदि ना जानकार तथा अभ्यास
रहित व्यक्ति के समक्ष इसकी मर्यादा या गुण को बताया या कहा जाय, तो उसके लिये तो
हास्यास्पद और पागलपन के सिवाय और क्या है ? यह उनको कोन समझावे कि उनका ही व्यक्तित्व तथा वाणी स्वतः ही सुविज्ञ
समाज हेतु पागलपन तथा हास्यास्पद है, जानकार तथा अभ्यासी का नहीं।
आभ्यांतर कुम्भक :- जैसा कि उपर्युक्त
प्रकरण में बताया गया है ठीक उसके प्रतिकूल रेचक के पूर्व तथा पूरक के पश्चात् ली
जाने वाली प्राण-वायु को रोक रखना ही आभ्यांतर कुम्भक है।आभ्यांतर कुम्भक शक्ति
को ही संघटित रूप या स्थिरता प्रदान करने वाली क्रिया-प्रक्रिया है। यह बात बतलाऊँ
कि कुम्भक का यथार्थ लाभ आभ्यांतर कुम्भक से ही संभव है बाह्य कुम्भक तो इसका
सहयोगी मात्र ही होता है प्रधान तो यह आभ्यांतर कुम्भक ही होता है। यह अपने शरीर
के अन्तर्गत शक्ति-संचय का सर्वोत्तम क्रिया या पद्धति है। इसकी यथार्थ अनुभूति
इसके अभ्यास करने वाले निरन्तर-अभ्यासी को ही मिल सकती है। मात्र पढ़ने वाले को
नहीं।
नोट :- अंततः बतलाऊँ प्राणायाम की मर्यादा कही, गायी और लिखी भी
नहीं जा सकती है क्योंकि यह आत्म-शक्ति के काम करने का मार्ग है, शरीर का नहीं।
प्रत्याहार:- ‘विषयादीन्द्रिय
निग्रहः प्रत्याहार। अर्थात् श्रोत्रादि इन्द्रियों का, शब्द-स्पर्शादी
विषयों या इन्द्रियों का अपने वृतियों से संयत होते हुये मन का वश में होना ही
प्रत्याहार है। यहाँ पर सामान्यतः तीन-विषय, इन्द्रियों तथा मन का जिक्र या वर्णन जन पड़ता है परन्तु मुख्यतः दो
ही---विषय तथा इंद्रिय ही व्यवहार में आते हैं। इसलिए इन विषयों और इन्द्रियों
दोनों को नियंत्रित अथवा अपने वश में करके रखना ही प्रत्याहार है। योग-साधना के
सफलता हेतु प्रत्याहार की भूमिका ही किसी से कम नहीं होती। यह बात तो अलग है है कि
इसकी मर्यादा कि समझदारी न होने से ये काम या छोटा जन पड़े। परन्तु यथार्थतः योग के
आठ अंगों में इसकी भी एक ‘अहं-भूमिका’ होती है। आइये अब विषयों तथा इन्द्रियों की जानकारी पृथक्-पृथक् रूप
में करें।
विषय :- पदार्थ-तत्त्वों या वस्तुओं की जानकारी
कराने वाले माध्यम को उसका विषय कहा जाता है। जैसे आकाश तथा आकाश-तत्त्व बहुल
वस्तुओं की जानकारी का माध्यम ‘शब्द’ है, जो शब्द उसका विषय हुआ। वायु तथा वायु तत्त्व से सम्बंधित वस्तुओं की
जानकारी कराने वाला माध्यम स्पर्श है, तो स्पर्श वायु तत्त्व का विषय हुआ। पुनः अग्नि तथा अग्नि तत्त्व का
विषय हुआ तो जल तथा जल तत्त्व से सम्बंधित वस्तुओं की जानकारी कराने का विषय रस है, जो रस जल तत्त्व का
विषय हुआ और पृथ्वी अथवा थल तथा थल तत्त्व से सम्बंधित वस्तुओं की जानकारी कराने
वाला माध्यम गंध है, तो गंध थल तत्त्व का विषय हुआ। अंततः पाँचों पदार्थ तत्त्वों के
मेल-मिलाप से ही हम आप के शरीर की रचना हुई अथवा शरीर उत्पन्न हुआ है। यही कारण है
कि पाँचों पदार्थ तत्त्वों की जानकारी कराने वाला शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध है। इसलिए
शरीर तथा वस्तुओं का विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध मात्र पाँचों ही हुआ। चूंकि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और
इन्द्रियों का सूक्ष्म रूप से युक्त जीव भी इस शरीर में समाहित है, उसकी जानकारी करने
वाली क्रिया अतीन्द्रिय कहलाती है। इस प्रकार जीव रूप सूक्ष्म तत्त्व का विषय
सूक्ष्म विचार हुआ, जिसको सामान्य स्थिति में कार्य करने वाली ज्ञानेंद्रियाँ नहीं जान
पाती हैं इसके लिए अतीन्द्रिय की आवश्यकता पड़ती है। यही कारण है कि सामान्य
व्यक्ति इसे नहीं समझ पाते हैं।
सद्भावी बन्धुओं ! कोई विषय दोषी नहीं होता है। विषय तो वस्तुओं और
व्यक्तियों का गुण और स्वभाव होता है। किसी व्यक्ति या वस्तु से यथार्थ लाभ लेने
तथा उचित व्यवहार तथा उपयोग हेतु यह अनिवार्य होता है कि उस व्यक्ति या वस्तु की
यथार्थ जानकारी हासिल कर उसकी यथार्थता की पहचान करते हुये आवश्यकतानुसार तथा
आवश्यकता तक उसका उपयोग तथा उपभोग किया जाय। यह सब मात्र इसलिए है परन्तु उसको
अपना-अपना, पराया-पराया अथवा हमार-हमार, तोहार-तोहार, कह-कह कर अपना के लिए तोहार या पराया से लड़ना-झगड़ना, अपना बनाना तथा
उसमें ममता और आसक्त रूप मोह के बन्धन में बन्ध-बन्धाकर उसी में चिपक जाना तथा
चिपके रहना दोषपूर्ण होता है। कोई विषय दोषी नहीं तथा उसका आवश्यकतानुसार तथा
आवश्यकता तक प्रभु कृपा को स्वीकार करते हुये सेवा रूप में उपयोग तथा उपभोग
करना-कराना तो कदापि दोषपूर्ण या गलती या अपराध नहीं है परन्तु अपना बनाने का
प्रयत्न तथा भाव ही दोषपूर्ण या गलती या अपराध है- उसका उपयोग या उपभोग करना तो है
ही। मैं और मेरा ही अपराध है तथा तू और तेरा या आप या आपका कहना, मानना तथा व्यवहार
ही मुक्ति है।
इंद्रियाँ :-
इन्द्रियों से मेरा तात्पर्य विषयों की जानकारी करने तथा उसके अनुसार
साथ व्यवहार करने से है। इंद्रियाँ मुख्यतः से दो प्रकार की हैं,
पहला-ज्ञानेंद्रियाँ और दूसरा कर्मेन्द्रियाँ। ज्ञानेन्द्रियों का कार्य वस्तुओं
का विषयों के अनुसार जानकारी करना तथा कर्मेन्द्रियों का कार्य जानकारी के अनुसार
व्यक्तियों और वस्तुओं से व्यवहार करना है। इन्द्रियों के माध्यम से ही शरीर
जानकारी तथा व्यवहार करती हुई। संसार में भ्रमण या विचरण करती है परन्तु जो शरीर
जिस किसी को अपना बनाकर उसी में चिपक जाती है यही इस शरीर का फँसना तथा इसके
यथार्थतः उत्थान एवं विकास का रुकना है। यदि यह कहा जाय कि इस फँसने तथा उत्थान
एवं विकास से रुकने का दोषी यह अपराधी कौन है ? तो यह दिखलायी देता है कि इसके उत्तर को समझना भी आसान नहीं, अपितु एक कठिन
कार्य है जिसको विशेष अध्ययन, वह भी विशेष सावधानी के साथ ही किया जा सकता है अन्यथा अध्ययन, अनुभूति, अनुभव तथा बोध करने
वाले चारों तरफ विषय अपने गुण-स्वभाव के साथ छाया रहता है उससे फँसने तथा चिपकने
ने बचा रहना भी आसान नहीं होता है, इसलिए अपने यथार्थ लक्ष्य को हासिल करना तथा आजीवन उसके साथ सही
तरीके से सफलतापूर्वक, ‘एकरूपता’ ‘अद्वैत्तत्त्वबोध’ में अपने मैं-मैं तथा मेरा-मेरा के ईमान के साथ विलय कर देना चाहिए कि
न रहेगा पृथक या अलग अस्तित्व और न फँसने या चिपकने का भय और न होगा किसी भी
प्रकार का अपराध, सदा-सर्वदा परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म रूप
परमब्रह्म या परमात्मा के निर्देशन एवं आज्ञा में ही शरीर को मन तथा धन के साथ
पूर्णतया कर देना और उसी के अनुसार उसका उपयोग करते हुये शरणागत भाव में
सेवा-भक्ति के साथ परमप्रभु के प्यार तथा आनन्द हेतु सलोक्य तत्पश्चात् सारूप्य
मुक्ति का बोध करते हुये शरीर छोड़ते हुये सायुज्य मुक्ति रूप परमतत्त्वम्
(आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा में विलय हो जाना ही अपनी अन्तिम उपलब्धि समझना
चाहिए।